रवि-वार की उषा आ रही
हाँ,मैं रवि-वार सुबह उठ जागा
पर कोईं ऐसी स्थिती ना थी जो सर दुखने से रोके.
बुरी नहीं थी मदिरा जो प्रातः आहार में ली थी
रात्रि भोज के मीठे में एक बार और वो ले ली
फिर अलमारी में रखे वस्त्रों के बीच टटोला
सबसे स्वच्छ गंदा कुर्ता ढूँढ कर निकाला
मुँह धो कर और बाल संवार
सीढ़ी से नीचे फिसला उस दिन के स्वागत को.
पूर्व रात्रि को मैंने था मन धुँए में उड़ाया
वोह सिगरेट और गीत जो चुनता रहा मैं
पर ज्यों मैंने पहली जलाई और नन्हे बालक को देखा
वो मग्न था खाली डब्बे को लतिया कर खेलने में
सड़क पार कर के ज्यों आगे बढ़ा मैं
तृप्त हुआ तलते हुए मुर्गे की रविवारिय सुगंध में
और हे देव, वो ले गयी मुझे उस के पास जो मैंने खोया था
कभी कहीं बहुत समय पूर्व.
रवि-वार की सुबह फुट-पाथ पर योँ चल कर
मैं मांग्ता हूँ देव मुझे कोईं पत्थर मारे
क्योंकि रवि-वार की सुबह में वोह सब कुछ है
जो तन को दिलाता है अकेलेपन का एहसास
और वो मृत्यु से कम नहीं
और उस का एहसास उतना भी अकेला नहीं
जितना सोते हुए शहर का फुट-पाथ
और अवतरित होती रविवारिय सुबह.
उद्यान में एक पिता को देखा
एक नन्हीं हँसती बाला के संग जिसे वह् झुलाता था
एक रविवारीय विद्यालय के पास रुक कर
सुना वो गीत जो उन के स्वर से उठता,
तेज़ी से फिर राह् पकड़ ली
दूर् कहीं एक विरही घंट का नाद था उठता
योँ प्रतिध्वनित होता वोह घाटी में
ज्यों धुंधलाते सपने हों कल के.